सोमवार, 11 अप्रैल 2016

बेज़ारी को बेपनाह प्यार में.......

बेज़ारी को बेपनाह प्यार में....... 
 
या खुदा इतनी तो कशिश भर दे दिल की दर-ओ-दीवार में
कि बदल के रख दूँ उसकी बेज़ारी(१) को बेपनाह प्यार में
कुछ यूँ माँगी है वक़्त की मोहलत मेरे राहग़ुज़र(२) अज़ीम(३) ने
काश फ़ौरन मुक़म्मल (४) हो ये न हो जनाज़ा उठे मेरा इंतज़ार में

कुछ माज़ी (५) की दुखती रगें हैं जिन्हे दबाना नहीं चाहता
कुछ उन लम्हों की चुभती यादों को भी बताना नहीं चाहता
मैं शायद कभी न भर पाऊँ उस खाली सी जगह का कोना
जिसे हसरतों सा पाले बैठा हूँ मैं अपने दिल-ए-दीदार में

कि बदल के रख दूँ उसकी बेज़ारी को बेपनाह प्यार में
क्यूँ इक ख़ौफ़ सा लगता है जब सुनता हूँ तेरा बीता कल
पूरी गुफ़्तगू में क्यूँ चुभ सा जाता है बस वही एक पल
या तो तुझे खो देने का डर सा है या ना-मालूम है वजह
मैं तो इस बात भी अंजान हूँ कि हूँ भी या नहीं तेरे इक़रार में

कि बदल के रख दूँ उसकी बेज़ारी को बेपनाह प्यार में

कोशिश बहुत की मैंने कि मुन्तज़िर (६) रहूँ और कुछ ना कहूं
दिल के कुछ जज़्बातों को ज़ाहिर किये बिना हँसता सा रहूँ
पर माफ़ करना शायद दिल हावी हो गया मेरे दिमाग़ के आगे
और कर बैठा हूँ इज़हार अपनी हालत का तेरे इख़्तियार(७) में

कि बदल के रख दूँ उसकी बेज़ारी को बेपनाह प्यार में

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उर्दू शब्दों का हिंदी अर्थ :
(१) अलग थलग सा (२) साथी (३) महान (४) पूरी (५) गुज़रा वक़्त
(६) इंतज़ार करने वाला (७) सामने


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बुधवार, 23 मार्च 2016

आपका शुकराना....

आपका शुकराना....

यूं  ही एक दिन उदास सा बैठा था मैं
ना जाने कहाँ से इक महकती ख़ुश्बू सी छू गयी
कुछ अजीब सी कशिश थी उसके एह्सासात की
जाते जाते बस छोड़ के वो अपना जुनूँ गयी......
कभी सोचा ना था उससे कुछ ऐसे जुड़ जाऊंगा
तन्हाइयों की राह पे चलता इक आवाज़ से मुड़ जाऊंगा
ना जाने क्या बात थी उसकी लरज़ती पलकों के चिलमन में
जो इक नज़र में तीरे-तश्तर चला के कुछ यूं गयी.......
चंद दिनों में ही वो लगने लगी ज़िन्दगी का हिस्सा सी
पलकें मूँद हज़ार मर्तबा पढ़ लूँ  वो किस्सा सी
मुझे दिल तो दे गयी वो अपना जाते जाते
पर मासूमियत में ले के मेरे दिल का सुकूँ गयी.......
लगने लगा है मुझे जीने की राह मिल गयी हो
मेरे बिखरे हुए ख़्वाबों को पनाह मिल गयी हो
खुदा गर दूर कर दिया जो मेरी जान से मुझे
गिला न करना मेरी रूह इबादत से बेज़ार क्यूँ गयी
गिला न करना मेरी रूह इबादत से बेज़ार क्यूँ गयी....

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015

दूरियों के मौसम...

जाने हम किसी बात पे ज़रा मुस्कुरा क्या दिए
उन्हें लगा बगैर उनके सुकूँ से जी रहे हैं
बदनसीब हैं उन्हें बता भी नहीं सकते
हर लम्हा ज़हर के घूँट पी रहे हैं
उस एक वाहिद आखिरी मुलाक़ात में कहा था
फौत हो जाएंगे तुझ से दूर हो के हम
बदक़िस्मती से न ज़िंदगी मिली न वफ़ात
रूह के ज़ख्मों को क़तरा क़तरा सी रहे हैं
या तो मर जाते तेरे ग़म में या इंतज़ार करते
किसी एक बला को ही बस चुनना था
मरते तो तेरा दीदार सितारों से नोश करते
ज़िंदा हैं बस इसी तवक़्क़ो में जी रहे हैं
कोई ऐसी रात नहीं गुज़रती जिसमें तेरा सपना ना हो
कोई दिन नहीं गुज़रता जब तेरा एहसास अपना ना हो
इस मुस्कान के पीछे ज़ख्म जो अभी हरे से हैं
सुर्ख रखने को खुद को मेरा लहू पी रहे हैं
मरते दम तक तेरी राहों में पलकें बिछाए
धीमी आँच पर तेरी मोहब्बत की लौ जलाये
बस करूंगा तसव्वुर तेरी आहटों का ताउम्र
कभी दूरियों के मौसम एक से नहीं रहे हैं
कभी दूरियों के मौसम एक से नहीं रहे हैं!

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

"इक क़सक जो अधूरी रह गयी" - मेरी १००वी रचना

तू साथ थी फिर भी तेरे हम-नवां(१) ना हो पाये
तुझ से दूर हुए फिर भी तुझसे जुदा ना हो पाये
हर वक़्त तुझे पलकें मूँदे किसी के सजदे में ग़ुम देखा
आखिर में मेरे गुमाँ(२) निकले पर तेरे ख़ुदा ना हो पाये
हज़ारों खतायें की होंगी तेरे जानिब(३) रह कर भी
बेइन्तेहाँ तग़ाफ़ुल(४) किये होंगे तुझे अपना कह के भी
ना जाने कितनी गिरहें(५) उलझ गयीं इन बीते लम्हों में
वक़्त गुज़ारते हैं इन्हे खोलने में पर बेवफा ना हो पाये
जब बिछड़ रहे थे तुझसे आँखों में नमी लिए
मुसल्सल(६) उम्मीद थी काश तुझे आग़ोश में ले पाएं
तुझ पे लिखे कुछ लफ्ज़ जो होटों पे लरज़ते रहे
अफ़सोस जुदा होते हुए भी वो ग़ज़ल ना कह पाये
खुदा मुझे या तो तुझे बख़्शे या करा दे मौत नसीब
बस एक बार दीदार हो और हम ये कह पाएं

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(१) अपनापन (२) धोखा (३) पास (४) तिरस्कार (५) गाँठें (६) सरासर

मंगलवार, 7 जनवरी 2014

अरमान अभी कुछ बाक़ी हैं!

क्या जी ली ज़िंदगी जी भर के
या उम्मीद नयी इक ताकी है
हर रोज़ सोच के जीता हूँ
अरमान अभी कुछ बाक़ी हैं
बचपन की यादें हुई गुम
वो यार जो बिछड़े राहों में
उन यारों से भी झगड़ों का
कुछ लेना देना बाक़ी है
जद्दो - जहद में ज़िन्दगी की
कुछ पल जो सुनहरे बिखर गए
उन पलों से खुद के पल चुन कर
शीशे में सजाना बाक़ी है
कभी इसके लिए कभी उसके लिए
अपनों के लिए दूजों के लिए
हर लम्हा दिल से  जीता हूँ
उम्मीद सी दिल में बंधती है
मेरा वक़्त भी आना बाक़ी है
सबके जीवन में खुशियों के
मुस्काते फूल खिलाता हूँ
शायद वो मिटटी होगी हरी
जिसका वो रंग तो खाकी है
हर रोज़ सोच के जीता हूँ
अरमान अभी कुछ बाक़ी हैं!

सोमवार, 5 अगस्त 2013

निशानियाँ

यूं तिनकों सी बिखरी हुई मेरी आराइश (१)
खूबसूरत रात की दास्ताँ कहती है
तेरे जाने के बाद भी पहरों तक
मेरे लबों पे इक जुम्बिश (२) रहती है
गेसुओं में तेरी उँगलियों की हरारत
 हर ज़ुल्फ़ उनछुई सिहरन सहती है
लरजती पलकों पे तेरे लबों की आहट
किसी शरारत की कहानी कहती है
तेरे आगोश में आकर टूट जाने की
उस वक़्त बस यही कोशिश रहती है
कि डूब जाऊं तुझ में  इस तरह से मैं
जैसे रेत दरिया के चश्मों संग बहती है
न जाने फिर कब आयेगा तू और
खूबसूरत सा वो मिलन होगा
कुछ तो छोड़ जाने की भी
दुनिया की रवायत (३) कहती है
चल कुछ और नहीं तो बस तू फिर
लबों पे गवाही छोड़ जाना
सुना है कि कुछ ख़ास गवाहियां
बन के निशानियाँ रहती हैं

शब्दार्थ : (१) साज-सज्जा (२) एह्साह (३) रस्म

मंगलवार, 2 जुलाई 2013

कुछ अनछुए पहलू!

तन्हाइयों में घिरा कुछ सुकून की तलाश में
सोचा इक खामोश सा कमरा ढूंढ लूं मकान में
खुशकिस्मती से इक कोठरी मिली जिसे खोला तो देखा
उसमें मेरे बचपन का हर लम्हा बिखरा हुआ है
ये लम्हे अब मेरी तन्हाइयों के हमसफ़र हैं
जिन्हें ना जाने कब से किस किस हवा ने छुआ है
जब समेटने लगा मेरी लिखी कुछ नज्मों की परतें
पाया हर एक पुलिंदा दूसरे से चिपका सा हुआ है
मानो कह रहा हो जुदाई के डर  से वो मुझ से
ना कर अलग साँसों का रिश्ता जुड़ा हुआ है
सोचा था ये पन्ने मेरी हाजत-रवाई(१) करेंगे
पर इन्होने तो वादा-ए-वफाई किया हुआ है
काश हम भी इन पुराने कतरों नुमाँ (२) होते
जो रवायत (३) समझ खुदा ना बनाते बनाते खुद को
अफ़सोस बड़ी देर लगी ये हकीकत समझने में
की क्या खुदा भी कभी किसी एक का हुआ है

शब्दार्थ : (१) एक दूसरे को समझना (२) की तरह (३) परंपरा

गुरुवार, 6 जून 2013

न जाने क्यों!

क्या अजीब से हालात हैं कि वक़्त नहीं कटता 
निगाहों के सामने से तेरा चेहरा नहीं हटता 
लगता है जैसे ज़माना हुआ तुझे देखे हुए मुझको
यूं बे-वजह ही दिल से गुबार-ए-ग़म नहीं फटता 
हैरान हूँ उन कसमों के मयस्सर होने की नीयत पे 
जो कहती थी तुझे देखे बिना ये दिल नहीं धडकता 
बातें थी शायद बस तेरी बातें ही होंगी वो 
बातों में अब वो पहले सा जुनूँ  नहीं दिखता 
वक़्त है ये वक़्त जो हर शै से है जबर 
इस वक़्त के आगे कोई वादा नहीं टिकता 
काश तू देख पाती चाक-ए-जिगर मेरे 
ना जाने कितने कतरे बहे खूं  नहीं रुकता 
शायद तुझे लगता है ये की बस बहाने हैं 
और मैं तुझे कभी कहीं समझ नहीं सकता 
तू बेखबर है हालत से मेरी जा ओ बेवफा 
सासें हवा सी ले रहा हूँ जी नहीं सकता 
तेरी नज़र में खो चुका हूँ काबिलियत इस क़दर 
बदनसीबी है की अब तुझे हासिल हो नहीं सकता

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

ज़िंदगी से इक मुलाक़ात !

ये गुस्ताखियाँ हैं तेरी जुल्फों में क़ैद ओस की बूदों की
जिनके महासल(1) बने दरिया ने मुझे इक नज़्म लिखा दी 
तेरे सजदे में ग़ुम हो के जो पलकें मूंदी मैंने 
उस एहसास ने ही मुझे नफीस(2) जन्नत दिखा दी 
गेज़ाल(3) सी तेरी आँखों की शोखी ने यकायक 
ख़्वाबों से जगा साकी बिन मुझे मय सी पिला दी 
तेरे आँचल की इक लहर जो वीरानो से निकली थी कभी 
ना जाने कितनी उस ने क़ब्रों में सोयी रूहें ज़िला दीं 
तेरे क़दमों की आहट जैसे खनकते घुंघरुओं ने 
बाखुदा सहराओं(4) में भी मस्त इक महफ़िल खिला दी 
इल्तेजा है खुदा से तेरी नज़र-ए-इनायत हो मुझ पे 
यूं लगेगा मुझे के खुदा ने ज़िंदगी मिला दी!

(1) परिणाम स्वरुप (2) जगमगाती (3) हिरनी जैसी (4) रेगिस्तान 

सोमवार, 7 मई 2012

जय हो निर्मल बाबा!


दोस्तों
सब को मेरा प्यार भरा प्रणाम!
जैसा की आप सब जानते हैं की मेरे घर में नन्ही परी ने जन्म लिया है तो आजकल इतना व्यस्त रहता हूँ की ब्लॉग पर आने का वक़्त ही नहीं मिलता, काफी दिनों से आप सभी को नहीं पढ़ पाया इसके लिए क्षमा याचक हूँ!  आज ज़रा वक़्त मिला तो सोचा की कुछ लिखा जाए और निर्मल बाबा से बढ़िया क्या मिल सकता था तो एक व्यंग लिख डाला!
कृप्या ध्यान दें: ये एक कल्पना मात्र है, किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का मेरा इरादा नहीं है!

आशा करता हूँ आप सब को पसंद आयेगी ये रचना!

सुरेन्द्र "मुल्हिद"

जय हो निर्मल बाबा!

आजकल कोई कहता नहीं, जाना है काशी काबा
पूरी दुनिया पे छाये हैं अपने निर्मल बाबा 
किसी को कहते बिस्किट खाओ किसी को कहते खीर
भर भर के किरपा आयेगी, बन जाओगे पीर
किसी ने घर का खाना छोड़, पकड़ लिया है ढाबा
पूरी दुनिया पे छाये हैं अपने निर्मल बाबा   
हरे गुलाबी छोड़ के बस तुम बटुआ रखना काला
अब तक घर में क्यों नहीं तूने काला कुत्ता पाला
पैसे गर पाने हों बच्चा, शिफ्ट तू हो जा नाभा
पूरी दुनिया पे छाये हैं अपने निर्मल बाबा 
कोई कहता जुड़े हुए बस हुए हैं ६ ही महीने 
दरबार के चक्कर लगा लगा छूट गए पसीने
गर्लफ्रेंड नहीं बनी तो बेटा चला जा बीच कोलाबा
पूरी दुनिया पे छाये हैं अपने निर्मल बाबा 
अपने घर सुख मिले नहीं तो दूजे के घर झाँक
फिर भी अगर दिखाई ना दे, खोल ले तीसरी आँख
सब सोना दरबार को दे के, घर में रख ले ताम्बा 
पूरी दुनिया पे छाये हैं अपने निर्मल बाबा 
पूरा होते काम तुझे देना होगा दस्वंद 
वरना मेरे पहलवान तेरी साँसें करेंगे बंद
बेवक़ूफ़ जनता को बनाना, यही है मेरा हिसाबा
पूरी दुनिया पे छाये हैं अपने निर्मल बाबा 
जय हो निर्मल बाबा की, जय हो निर्मल बाबा!

सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

गाहे-बगाहे हैं!

चलते चलते इतनी दूर चला आया मैं


फिर भी लगती अजनबी सी राहें हैं

लाख नज़ारे देखे होंगे राह-ए-सफ़र में

ना जाने क्यों फिर भी सूनी सी निगाहें हैं

यूं तो तेरी यादों को साथ ले के चला था

अब गहराइयों में दिल की सिसकती सी आहें हैं

तुझे आगोश में लेने की बस तम्मना रह गयी

आज भी तेरे इंतज़ार में खुली मेरी बाहें हैं

ना जाने कब फरिश्तों की नगरी से बुलावा हो

सुना था वहाँ रहती मोहब्बत-ए-पाक अरवाहें हैं

इक तुझसे प्यार किया तो पहचान थी अपनी

आज दुनिया की नज़रों में हम गाहे-बगाहे हैं!

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

"मफर सी रिहाइश"

ना जाने क्यों वो मुझ से दूर हैं
इक पल उनके बिना बिताया नहीं जाता
उनकी यादें ही अब साँसों की कासिम(१) हैं
वर्ना रिश्ता-ए-ज़िंदगी निभाया नहीं जाता
उनकी गलियों में मफर(२) सी रिहाइश में हैं
हू-ब-हू उनसा कोई साया नहीं आता
रात होते चाँद में नज़र गड़ सी जाती है
जाने क्यों उनका रुखसार नुमाया(३) नहीं जाता
हार कर क़दम मयखाने मोड़ लेते हैं
वहाँ भी गम-ओ-मय मिलाया नहीं जाता
हर रोज़ उनके लिखे कागज़ के कतरों में
चाह कर भी खुद को गुमाया नहीं जाता
हर लफ्ज़ उनका जीने की उम्मीद सा है
हज़ारों बार पढ़ लूं कुछ मेरा जाया नहीं जाता !!

(१) बांटने वाली (२) खानाबदोश (३) प्रतीत होना

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2011

मुश्क-ए-जज़्बात

उन्होंने चेहरे पे जुल्फें यूं बिखरायीं


जैसे सावन की गर्त काली रात हुई हो

नूर-ए-चश्म झांकता सा गेसुओं के चिलमन से

जैसे सुर्ख बादलों से उसकी बात हुई हो

इक पल को ही जो उनके दीदार हो जाएँ

लगे ज़िन्दगी की मुकम्मल सौगात हुई हो

जो झटक दें जुल्फों से पानी के कुछ कतरे

यूं लगे रिमझिम मुहब्बत की बरसात हुई हो

नज़र उठा के देख लें जो वो झरोखों से

क़दमों में जैसे झुकी झुकी कायनात हुई हो

उनके रुखसार की रौशनी से ही उजाला है

जो ढक ले कभी तो दिन में मानो रात हुई हो

खुदा ने भी शायद उन्हें शिद्दत से तराशा है

मानो सबसे काबिल शिल्पी से उसकी बात हुई हो

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

कुछ ग़ुम अनमोल लम्हे......

ना जाने किस धुन में था मैं उस दिन
आग-ए-गुमाँ रिश्तों को तपाया मैंने
बदकिस्मती में खाली हाथ बैठा था
एहसास का वो अज़ीज़ पल गवाया मैंने
वो जिन्हें मोतियों की माला बना सजाना था
उनकी आँखों से उन अश्कों को बहाया मैंने
वो नाराज़ हो के भी तलाशते रहे मुझको
बे-गैरती में कोई रिश्ता न निभाया मैंने
रुखसती का हर लम्हा उन्हें सालता सा था
उन्हें और जलाने खुद को छुपाया मैंने
कुछ वक़त बाद एहसास हुआ दीदा-दिलेरी(१) का
दस्त-बसता(२) फ़रियाद दिल को मनाया मैंने
इक डर सा दिल में था की वो माफ़ न करे
पर हिम्मत कर उसकी तरफ क़दम बढ़ाया मैंने
अपनी तरफ आता देख वो उठ के जाने लगे ऐसे
अपनी आँखों में खुद को गिरा नुमाया मैंने
पलकें झुकी और खुद में जैसे ही सिमटा
उन्हें अपने ही करीब खडा पाया मैंने
अब फर्क ये था अश्क थे दोनों की आँखों में
अश्कों के दरिया में खुद को डूबा पाया मैंने
इक बार फिर साबित हुआ वो कितना चाहते हैं
खुद को उन सा बनाने का वादा खुद से बनाया मैंने
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(१) शर्मनाक हरकत (२) हाथ जोड़ कर
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रविवार, 17 जुलाई 2011

एहसास..........

चन्द रोज पहले उन से मुलाकात ने
कुछ ऐसा निशान दिल पे छोड़ दिया
यूँ लगा बिस्मिल्ला कर इलाही ने
दो अरवाहों(१) को इक दूजे से जोड़ दिया
वो मुझ में और मैं उन में
कुछ इस कदर से गुम थे हो गए
बस आगोशी की खुश्बू इन्तिशार(२) हुई
और शर्म-ओ-हया का चिलमन तोड़ दिया
क़रीबियत का एहसास रश्क-ए-जिनान(३) सा था
यकायक खुद को तेरी बाहों में तोड़ दिया
निकला था घर से खुदा की बन्दगी करने
मोहब्बत के फरिश्तों ने तेरी ग़ली मोड़ दिया
तू दूर है मुझसे फिर भी सांसों में रिहाइश है
तेरी तपिश के सिवा ना खुद को कुछ और दिया
यादों की नीव पे तामीर(४) ख्वाबों का घरौन्दा
आज मिल गया और महलों को मैने छोड़ दिया
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(१) आत्माओं (२) फैलना (३) जन्नत जैसा (४) खडा किया हुआ
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बुधवार, 18 मई 2011

किसी ख़ास के लिए....

तू मेरी चाहत का यूं ही इम्तेहान न ले ओ ज़ालिम
तेरे दिल में समंदर सा प्यार न भर दूं तो कहना
कुछ ऐसा कर दूंगा की आकिबत(१) में तू ढूंढे मुझे
बाहों में टूटने को मजबूर न कर दूं तो कहना
ये जो सज संवर के निकलते हो दिखावटी चिलमन ओढ़े
इसे फ़ाज़िल(२) निगाहों से तार-तार न कर दूं तो कहना
अभी तो तुझ से रू-ब-रू ही करता रहता हूँ मैं
इक दिन इज्तेमा-ए-महफ़िल(३) इज़हार न कर दूं तो कहना
तेरी हर ख्वाहिश को पूरा करने की कोशिश में
दिखता तो जो बस एक है, वो चाँद चार न कर दूं तो कहना
तू तो बस मुझे वो नादिर(४) मुहब्बत के दो फूल दे दे
उन्ही दो फूलों से दामन गुलज़ार न कर दूं तो कहना
जो तू साथ न छोड़े ता-उम्र मेरा ए मुश्फिक(५)
मौत के फ़रिश्ते को भी इनकार न कर दूं तो कहना
इतनी कशिश है मेरी मुहब्बत की तासीर में
दूर हो के भी तुझ पे असर न कर दूं तो कहना!

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(१) पुनर्जन्म (२) तेज़, शातिर (३) हजारों लोगो की भीड़ (४) खूबसूरत (५) दोस्त
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सोमवार, 25 अप्रैल 2011

अनमोल कर दिया!

प्रिय मित्रो,
सादर नमस्कार!
आज लगभग डेढ़ महीने बाद कुछ लिखने का मौका मिला, असल में इतना व्यस्त था की अपने आप को भी वक़्त नहीं दे पा रहा था!
पेश-ए-खिदमत है आप सब के आशीर्वाद को व्याकुल मेरी एक नयी रचना, आशा करता हूँ आपको पसंद आएगी!

मुझे याद है वो दिन जब पत्थर था मैं
और कोई राहगीर मुझे खरीदता नहीं था
जी रहा था मुफलिसी की ज़िन्दगी पल पल घटती
किसी रहबर का दिल भी कभी पसीजता नहीं था
हर रोज़ शाम दरख्तों की आड़ में छुप कर
हस्सास(१) निगाहों से तुझे निहारा करता था
तेरी इक नज़र की कशिश की महक को ही
अपने दिल की गहराइयों में उतारा करता था
फज़ल से वो पल भी आया उस दिन ज़िन्दगी में
तुने छुआ मुझे हलके से और फिर बात की
ऐसा लगा किसी हूर ने छड़ी घुमाई और
अमावस सी ज़िन्दगी में पूनम की रात की
तेरे होटों की छुअन ने तो जैसे
कडवे ज़हर भी शीरे का घोल कर दिया
मैं मिटटी का ज़र्रा था बेकार तूने
खरीद कर मुझे लिल्ला अनमोल कर दिया
बस आखिरी सफ़र भी अब आशिकाना हो जाए
तेरी मेरी कहानी इश्क का अफसाना हो जाए
सांस टूटे तो टूटे तेरी बाहों की आगोश में
खुदाया मौत भी मेरी फिर शायराना हो जाए

(१) भावुक

शुक्रिया!

मंगलवार, 8 मार्च 2011

औरत हूँ मैं....

प्रिय मित्रो,
सादर प्रणाम, पहले तो आज नारी दिवस के मौके पे मेरे सभी महिला ब्लॉगर सहभागी मित्रों को विशेष सत्कार!
काफी दिन हो गए थे, व्यस्तता के कारण कुछ लिखने का वक़्त ही नहीं मिल पा रहा था, आज ज़रा फ्री हुआ तो सोचा की मौका भी अच है, दिन भी अच्छा है तो क्यों न नारी के अस्तित्व पे कुछ लिखने की गुस्ताखी कर लूं, सो लिख दिए दिल के भाव!
आशा करता हूँ आप सभी अपने आशीर्वाद से अभिभूत करेंगे!

शीर्षक है: "औरत हूँ मैं...."


औरत हूँ मैं....

पैदा हुई तो किसी के यहाँ दिवाली,
और किसी के यहाँ रात काली,
कहीं सवालों के जवाब बनी,
और कभी खुद ही बन गयी सवाली,

औरत हूँ मैं....


कभी दो बहनों के होते भी मिला प्यार,
कभी अकेली थी भाइयों में तो भी तिरस्कार,
कभी मिल गया सब कुछ बिन मांगे ही,
कभी खुद पे भी न जता पायी अधिकार,
 
औरत हूँ मैं....


कभी पढ़ लिख के ऊंची मंजिल पायी,
कभी चूल्हों चौकों से न निकल पायी,
जहां कष्ट हज़ारों झेले थे कभी,
ज़रा सुख मिला तो भी न निगल पायी,
 
औरत हूँ मैं....


कभी माँ बाप को दोस्त समझ सब कह गयी,
कभी डरती सहमती सी चुप रह गयी,
कभी हसरतें उम्मीदें पूरी हुईं,
कभी बिन बोले ही सब कुछ सह गयी,
 
औरत हूँ मैं....


कभी कल्पना बन चाँद पे जा बैठी,
कभी बर्तन धोते तश्तरी को चाँद बना बैठी,
कभी सपनो ने अरमानो के पंख लगाए,
कभी दबे हुए अरमान भी भुला बैठी,
 
औरत हूँ मैं....


बेटी, बहन और माँ भी मैं हूँ,
तपती धूप में ठंडी छाँ भी मैं हूँ,
अत्याचारों की आग में जलती जो है,
जहाँ रहते हो वो भारत माँ भी मैं हूँ,
 
औरत हूँ मैं....


हर रूप में ममता की मूरत हूँ मैं,
जग जननी सृष्टि की ज़रुरत हूँ मैं,
दो क़दम आओ तो चार क़दम मैं आऊँ,
रब के बाद रब की ही सूरत हूँ मैं,
 
औरत हूँ मैं....औरत हूँ मैं....औरत हूँ मैं....!

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

अँधेरे का एहसास न हो!

अभी कुछ दिन ही हुए तुम दूर गए,

लगता है अरसो से तुम पास नहीं हो,

गाहे-बगाहे सासें भी रुक रुक के आती हैं,

जैसे इन्हें भी तेरी साँसों बिना जीने की आस नहीं हो,

तुझ पे लिखी हुई बंदिशों का पुलिंदा उठाया,

सोचा पढ़ लूं तो दूरियों का एहसास नहीं हो,

ज़ालिम हर लफ्ज़ की तासीर ने यूं घायल किया,

जैसे उन्हें मेरी तन्हाईयों का एहसास नहीं हो,

कुछ और पन्ने पलटे तो इक सूखा गुलाब दिखा,

फिर याद आया अरे ये तो वही पहला गुलाब है,

जो डर डर के तुम्हें देने को तुम्हारी सहेली को दिया था,

दूर झरोखे से तुम्हें यूं देख रहा था जैसे,

नज़रें उठाने की भी हिम्मत पास नहीं हो,

तुमने फूल लिया और मैं दौड़ कर ऊपर के कमरे में गया,

छोटे से मंदिर में घी का दिया जलाते हुए,

रब को हाथ बांधे शुक्रिया करते हुए कहा,

भले ही मिलाना हज़ारों से पर ध्यान ये रखना,

के कोई तुम जैसा खासम-ख़ास नहीं हो,

खुशकिस्मती है आप ज़िन्दगी का हिस्सा हैं,

जो कभी भी ख़त्म न हो ऐसा एक किस्सा हैं,

इंतज़ार में हूँ तुम जल्द आओ और अपने रुखसार से,

कुछ यूं रौशन करो की गर्त में भी अँधेरे का एहसास नहीं हो!

बुधवार, 12 जनवरी 2011

केश सिक्खां लई सब तों वड्डी दात!

कल शाम मैं गुरबाणी विचार सुन रहा था तो सिख पंथ के महान कथा-वाचक भाई पिंदरपाल सिंह जी ने एक कथा सुनाई! यह कथा जो आजकल केशों(बालों) की बे-अदबी कर रहे हैं सिख भाई, उनके लिए प्रेरणा है! मैं पूरा तो नहीं सुन पाया लेकिन जो सुना वही आप सभी के सन्मुख रख रहा हूँ!

गुरु गोबिंद सिंह जी जब औरंगजेब के खिलाफ लड़ाई कर रहे थे तो एक मुस्लिम जिसका नाम बुद्धू शाह था औरंगजेब का साथ छोड़ के गुरु साहिब के साथ मिल गया क्योंकि उसके मुताबिक़ गुरूजी सच की लड़ाई लड़ रहे थे, एक एक कर के दोनों ओर से लोग शहीद हो रहे थे और इस भाई बुद्धू शाह ने अपने दोनों जवान बेटों को भी लड़ाई के लिए गुरु जी के सुपुर्द कर दिया! लड़ाई में बुद्धू शाह के दोनों बेटे भी शहीद हो गए, जब ये बात गुरु जी को पता चली तो उनका दिल भर आया और उन्होंने बुद्धू शाह के पास जा के कहा, "बुद्धू शाह, आज तेरे दोनों बेटों ने सच के लिए कुर्बानी दी है, मांग आज तो तुझे माँगना है", उस वक़्त गुरु गोबिंद सिंह जी अपने केशों में कंघा कर रहे थे, तो बुद्धू शाह ने कहा की आपको अगर इतना ही तरस आया है मुझ गरीब पे तो आप मुझे अपना कंघा और उस में लगे हुए केश दान कर दो, इतना सुनते ही गुरु गोबिंद सिंह जी ने, कंघे समेत केश, बुद्धू शाह की झोली में डाल दिए!

जब बुद्धू शाह घर आया तो उसकी बेगम नसरीन ने पूछा की मेरे बेटे कहाँ हैं, इस पर बुद्धू शाह ने जो जवाब दिया वो उन सभी सिक्खों के लिए एक सबक है जो अपने केश कटाते हैं और अपने आप को गुरु का सिख कहलवाते हैं!

बुद्धू शाह ने कहा, "नसरीन, मैं अपनी ज़िन्दगी के सब से बड़ी कमाई, सब से बड़ी कीमती चीज़ अपने बेटे, गुरु गोबिंद सिंह को सौंप आया हूँ, और गुरु गोबिंद सिंह की सब से कीमती चीज़, उनके केश, अपने साथ ले आया हूँ"

इतना प्रेम करते थे गुरु गोबिंद सिंह जी अपनी सिक्खी से, और आज न जाने क्या हो गया है, फैशन के चक्करों में पड़ कर सिख अपने केशो की बे-अदबी करने से भी नहीं चूकते! गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिक्खी के लिए अपने चारों बेटे कुर्बान कर दिए और आज हम उनकी दी हुई सिक्खी को ही नहीं संभाल पा रहे हैं!

वाहेगुरु हम सब पापियों को सद-बुद्धि दें!

वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फ़तेह!

सोमवार, 3 जनवरी 2011

माँ तुझे सलाम!

वक़्त भी न जाने कैसे बदल जाता है....जब हम छोटे थे और कोई हमारी बात नहीं समझता था, तब सिर्फ एक ही हस्ती थी जो हमारे टूटे फूटे अल्फाजों को भी समझ जाती थी, और आज हम उसी हस्ती से कहते हैं, "आप नहीं जानती", "आप नहीं समझ पाएंगी", "आपकी बातें मुझे समझ नहीं आती", "लो अब तो आप खुश हो न", इस आदरणीय शख्सियत की इज्ज़त करें, इस से पहले की ये साथ ख़त्म हो!

सख्त रास्तों में भी आसान सफ़र लगता है,

ये मुझे मेरी माँ की दुआओं का असर लगता है,

एक मुद्दत से मेरी माँ सोयी नहीं है,

जब से मैंने एक बार कहा था, माँ-मुझे डर लगता है!

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

कभी न था!

प्रिय दोस्तों,

आप सभी को नव वर्ष २०११ की शुभ-कामनाएं!

काफी दिनों के बाद मैं फिर से अपने वियोग-रस के साथ हाज़िर हूँ! आशा करता हूँ आपको मेरी ये रचना पसंद आएगी! शीर्षक है, "कभी न था"

आज जा के जाना उस मुहब्बत की मजाज़त(१) को,

कि मैं तेरा हमसफ़र कभी न था,

भीड़ में हूँ पर लगता है ऐसा,

आज से पहले ऐसा सहर(२) कभी न था,

ठंडी हवाएं जिस से छन के सुलाती थीं मुझे,

उस से खूबसूरत एह्साह का शजर(३) कभी न था,

और अब आने से उनके आँखों में खूं उतरता है,

तेरे ख़्वाबों का भी ऐसा कहर कभी न था,

हर इमारत मुझे गुफ्तार(४) नज़र आती है,

तेरे दिल में तो शायद मेरा घर कभी न था,

वक़्त ने उस क़ज़ा(५) के दर ला छोड़ा मुझे,

जिस कब्रस्तान में हसरतों का शहर कभी न था!

******

(१)मोह-जाल (२) उजाड़ (३) पेड़ (४) ये कहती हुई (५) मौत

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बुधवार, 1 दिसंबर 2010

शीला की जवानी!


मित्रो,

बहुत दिन हो गए मैं कुछ लिख ही नहीं पाया, असल में ऑफिस में व्यस्तता इतनी हो गयी थी की मौक़ा ही नहीं मिला और ऊपर से कोई टोपिक ही नहीं मिल पा रहा था, मैंने सोचा कुछ लीक से हट के लिखूं, वैसे मैंने एक आध बार हास्य में गोता लगाने की कोशिश की लेकिन पता नहीं सफल हुआ या नहीं! चलो अभी एक हॉट टोपिक मिला जिसे मैंने व्यंग के साथ कुछ सच्चाइयों से भी जोड़ने की कोशिश की है!

नाम है "शीला की जवानी", आशा करता हूँ आप को पसंद आएगी और आप अपनी अति मह्हत्व्पूर्ण टिप्पणियाँ दे के हौसला-अफजाई करेंगे!


काफी दिनों से व्यस्त था

बोरियत भी थी भगानी

समझ आया नहीं किस पे लिखूं,

न किस्सा कोई न कहानी

शुकर है बॉलीवुड वालों का

टॉपिक दे दिया लिखने को

वाह क्या खूबसूरत टॉपिक दिया
नाम शीला की जवानी
राखी सावंत से शुरू हुआ

आइटम सॉन्ग का दौर तूफानी

कटरीना भला क्यों मना करे

उसे भी है किस्मत चमकानी

क्या मादक सा नृत्य किया

बाकी भरेंगी पानी

वाकई हिला के रख दिया

वाह रे शीला की जवानी

क्या मुन्नी और क्या शीला

हिट होने की सबने ठानी

चूल्हे में जाए संस्कृति भले

करेंगे अपनी मनमानी

पढ़ा पढ़ाया सब भूल गए

ये वक़्त ही है शैतानी

माँ बाप भले रूठे ही रहे

महबूबा मुझे है मनानी

ये देख क्या तूने कर डाला

पिला के फिरंगी पानी

मकसद में कामयाब हुई

वाह रे शीला की जवानी

दिल्ली की मुख्यमंत्री जी को भी

याद आ गयी नानी

कुछ ऐसी प्रतिक्रिया थी उनकी

जब देखी शीला की जवानी!

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

नजाकत आ ही जाती है!

प्रिय मित्रों,
अपनी इस हास्य कविता की पहली पंक्ति मेरी नहीं है सो बहुत ही आदर के साथ मैं आप सभी से आज्ञा ले कर इसे प्रकाशित करना चाहूँगा! तो पेश-ए-खिदमत है, मेरी एक नयी हास्य कविता, आशा करता हूँ आप सभी को पसंद आएगी!

खुदा जब हुस्न देता है नजाकत आ ही जाती है,

खुशनसीब हैं वो कुड़ियां नियामत पा ही जाती हैं,

बदनसीब हैं वो लड़के जो राह चलते छेड़ें उन्हें,

गाहे बगाहे किसी न किसी की शामत आ ही जाती है,

बच जाते हैं जो खाली चप्पलें खा कर,

तन्हाई में चैन की सांसें लेते होंगे,

गलती से भी जो हत्थे चढ़ जाएँ इनके,

पीछा करते हुए ज़लालत आ ही जाती है,

ऊपर से गर तीन चार तगड़े भाई हो उनके,

फिर तो भैया क्या कहने धुनाई के,

अम्बुलेंस की ज़रूरत भी नहीं पड़ती है,

जनता अस्पताल पहुंचा ही जाती है,

या तो हुस्न-ओ-अदा हमें भी दे ए खुदा,

या छीन ले इन लड़कियों से भी,

चाकू उठाने की हिम्मत भले न हो,

क़त्ल करने की ताक़त आ ही जाती है!

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

सपने....

सपने....
होश संभाले तो मां बाप ने सजाये,
बचपन से ही घोट घोट के पिलाये,
स्कूल में सब से अव्वल ही रहना,
ध्यान से पढना किसी से न कहना,
कितनी उम्मीदे है तुम से लगायी,
घनटो जाग के राते बितायी,
उन सब का दिल से तुम रखना खयाल,
करने तुम ही को हैं पूरे ओ लाल,
सपने....
अब अच्छी जिंदगी बिताने के लिये,
मोटी पगार की नौकरी पाने के लिये,
जैसे अमावास में चमकती सी रात हो,
ल्ग्जरी कार मिल जाये तो क्या बात हो,
इसी जदो-जहेद में हुये अपनो से दूर,
भीड में भी तन्हाईया भरपूर,
ऐश ओ आराम बस नाम के हैं,
अब लगता हैं किस काम के हैं,
सपने....
परिवार के भी फिर सजने लगे,
ख्वाहीशो के अंबार लगने लगे,
सब की मांगे भुनाने में,
उम्र गुजर गयी निभाने में,
अब समझा ये नाता तोडते नही,
आखिरी सांस तक पीछा छोडते नही,
कभी ख़ुशी कभी गम कह जाते हैं,
कभी पूरे अधूरे रह जाते हैं,
चलो चैन की नींद अब सो जायें,
काश सब के पूरे हो जायें,
सपने....

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

"इक अजनबी से दो बातें"

"इक अजनबी से दो बातें"

उस गुल-अन्दाम(१) अजनबी से इक बात,
एक खूबसूरत सा एहसास बन गयी,
तन्हाई के ज़ख्मो की मुदावा(२) माफिक,
मामूली सी जो लगती थी ख़ास बन गयी,
अधूरी सी थी जो दिल में इक ख्वाहिश,
परदाख्त(३) हुई और वो मेरे पास बन गयी,
हर पल मेरे लिए तेरी ये तवज्जो(४)
टूटती साँसों को जोडती सांस बन गयी,
इंतज़ार है कब मुलाक़ात होगी उस से,
ये दस्त-निगारी(५) मेरे जीने की आस बन गयी,
तुझे देखने की कशिश उस गनजीना(६) सी है,
जो मेरे सफ़र की सब से बड़ी तलाश बन गयी!
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(१) खूबसूरत (२) औषधि (३) पूर्ण (४) एहमियत (५) चाहत (६) खजाना

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सोमवार, 27 सितंबर 2010

नाक क्यों अडती है!

प्रिय मित्रो,
सादर नमस्कार!
कल शाम सोनी चैनल पर ३ idiots आ रही थी, मैं भी देख रहा था, उसी वक़्त मेरे एक मित्र ने एक टिपण्णी की, "किस करने में नाक क्यों अडती है?"
ऐसे शायराना अंदाज़ में उन्होंने ये बात कही थी की मैंने सोचा क्यों न अपने हाथ अब हास्य में आजमायें!
उन्ही की एक पंक्ति को ले कर मैंने एक कोशिश की है, आशा है आप सभी को पसंद आएगी!

शीर्षक: नाक क्यों अडती है!

कल शाम मैंने ३ idiots देखी,
एक dialouge सुनने को मिला,
ये किस करने में अक्सर,
नाक हमारी क्यों अडती है,
मन में सोचा रुक जा बेटा,
एक बार किस हो जाने दे,
फिर खुद ही तू देख लीजो,
कैसी खुमारी चढ़ती है,
ये किस तो बेशरम,
चीज़ ही कुछ ऐसी है,
भोले भाले इंसान को ही,
मोह-पाश में जकड़ती है,
और जो शुरू शुरू में,
ख़ुशी ख़ुशी किस करती थी,
थोडा वक़्त गुज़र जाए,
तो हर बात पे अकड़ती है,
बस इक किस के चक्कर में,
कर्जों में हूँ डूबा सा,
बे-गैरत ख्वाहिशों की ये,
लिस्ट तो हर पल बढती है,
किस करने के लालच में,
दुल्हन भी उसे बनाना पड़ा,
क्या करते कसमें जो दी थी,
फिर वो तो निभानी पड़ती है,
शादी से पहले लगते थे,
जो हरे सब्ज़ के बाग़ से,
उन्ही बागों में लगता है,
जैसे हरी भिन्डियाँ सडती हैं,
बेटी न कहते थकती थी,
शादी से पहले छोरी को,
वो माँ-बेटी हर घंटे में,
बिल्ली चूहों सी लडती हैं,
थका मांदा जब ऑफिस से,
सोफे पे आ के गिरता हूँ,
पूरे दिन की वो भरी बैठी,
मुझ पे भारी पड़ती है,
आहें भर भर सोचूँ मैं,
काश वो नाक अड़ी रहती,
ज़रा देर भी हो जाए,
तो शर्ट सूंघने बढती है,
किस कर के भैया मारा गया,
न करता तो अच्छा होता,
उस ज़िल्लत से मैं बच जाता,
जो रोज़ झेलनी पड़ती है,
जो रोज़ झेलनी पड़ती है!

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

एक खूबसूरत एहसास-मोहब्बत!

अक्सर लोगों को कहते सुना,
मामूली किसी के लिए,
और किसी के लिए ख़ास है,
देता किसी को ग़म कभी,
खुशियाँ नुमायाँ(१) भी करे,
जन्नत से भी खूबसूरत ये,
मोहब्बत का एहसास है,
एहसास वो जो ज़ख़्मी दिल को,
मसाफ़त-ए-ख्वाब(२) ले जा कर,
महसूस ये करवा दे के,
वो अब भी तेरे पास है,
एहसास वो जो फासलों में भी,
करीबियत की आब-ए-हयात बनकर,
रूहानियत से यूं मिला दे के,
लगे खुदा भी आस पास है!
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(१) प्रदर्शित (२) ख्वाबो की दुनिया में एक दिन का सफ़र
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सोमवार, 2 अगस्त 2010

"उस बचपन से तू मिला दे मुझे"

प्रिय मित्रो,
आज की कविता मैं अपनी सभी महिला ब्लॉगर मित्रों को समर्पित कर रहा हूँ! जीवन के कुछ रोचक लम्हों को मैंने कविता में पिरोने की कोशिश की है, आशा करता हूँ की आप सभी को पसंद आएगी! हो सकता है की इस में अभी और गुंजाइश हो, तो सुझाव सादर आमंत्रित हैं!

"उस बचपन से तू मिला दे मुझे"

नाजों में पली और फूलो सी,
बाबुल के अंगना खेली मैं,
क्या माँ बाबा और क्या सखियाँ,
करती सब संग अठखेली मैं,
हर जिद मेरी पूरी होती,
लाडली जो थी अकेली मैं,
जब बढ़ने लगी औ सवाल उठे,
तो बन गयी माँ की सहेली मैं,
उड़ते लम्हों में वो पल आया,
दुल्हन से सजी थी नवेली मैं,
पल भर डोली में ऐसा लगा,
जैसे हो गयी फिर से अकेली मैं,
.
.
अगले दिन आँख खुली खुद को,
इक नयी जगह पाया मैंने,
ता उम्र यहीं पे बसेरा है,
दिल को ये समझाया मैंने,
पहले दिन ही अरमानो को,
ख़्वाबों का पंख लगाया मैंने,
पलकें मूंदी और पल भर में,
खुद को उड़ता पाया मैंने,
छोड़ पुराने रिश्ते - नए,
रिश्तों को अपनाया मैंने,
गुज़रते वक़्त के संग संग,
हर नया किरदार निभाया मैंने,
.
.
कितना अरसा बीत गया,
सब कुछ सपना सा लगता है,
मैं खुद में हूँ या हूँ भी नहीं,
तनहापन अपना लगता है,
रिश्तों में घिरी सी रहती हूँ,
खुद का वजूद कहीं ग़ुम तो नहीं,
आईना देख के बोले मुझे,
क्या हुआ तुम्हे ये तुम तो नहीं,
कोशिश करती हूँ हर लम्हा,
उम्मीदों को मैं निभा पाऊँ,
अपने नाज़ुक से कन्धों पे,
सुख दुःख का बोझ उठा पाऊँ,
.
.
फ़रियाद खुदा में करती हूँ,
कुछ पल का सुकून दिला दे मुझे,
इस जद्दो-जहद में खो जो गया,
उस बचपन से तू मिला दे मुझे,
उस बचपन से तू मिला दे मुझे!

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

तेरी पायल की छम छम!

दोस्तों,
मेरी पुरानी रचना "बेगाने हो गए" पढने के बाद मेरी एक मित्र ने कहा की आप इस बार कुछ ऐसा लिखिए जिस से अपनेपन का एहसास हो माने जब दो प्रेम करने वालों का मिलन हो रहा हो और प्रेमी अपने दिल की बात अपनी प्रेमिका को ज़ाहिर करे!
कोशिश की है मैंने की शायद मैं अपनी इस रचना के साथ इन्साफ कर पाऊँ, बाकी आप सभी की प्रतिक्रिया बताएगी!
तो पेश-ए-खिदमत है:

"तेरी पायल की छम छम"

कितने अरसे के बाद सुनी,
तेरी पायल की छम छम,
हर वक़्त इल्तेजा करते थे,
इंतज़ार हुआ है ख़तम,
तेरे चेहरे को हाथों में ले,
ठगे से रह गए हम,
इस नूरानी रुखसार के आगे,
चाँद भी पड़ गया नम,
दो नैना ये दरिया की तरह,
कहीं डूब न जाएँ हम,
दो लब ये गुलाब की पंखुड़ी से,
इस दिल पे ढाएं सितम,
एहसास तेरा जादुई सा,
पत्थर को कर दे नरम,
तू चलती फिरती नज़्म मेरी,
किस काम की है ये कलम,
हर सू तेरे सजदे में रहूँ,
चाहे सासें बची हों कम,
फ़रियाद खुदा से करता हूँ,
कभी जुदा न हों बस हम!

सोमवार, 19 जुलाई 2010

बेगाने हो गए!

तेरी यादों ने यूं खब्त(१) कर दिया,
खुशियाँ गर्त और ग़म पहचाने हो गए,
महफ़िल में बैठे भी मुझे लगा ऐसे,
दश्त-ओ-दरिया(२) में मेरे ठिकाने हो गए,
जो कमरे मेरे घर इबादत के लिए थे,
जाने किस तरह से अब मयखाने हो गए,
खूगर(३) तेरी कशिश का मैं पहले ही था,
तेरे ग़म में बस पीने के बहाने हो गए,
ज़माने की रजीलियों(४) की क्या मिसाल दूं,
हर लफ्ज़ जैसे तीर के निशाने हो गए,
इक वक़्त था जो दोस्त भी होते थे साथ में,
खुद के साए भी अब तो बस बेगाने हो गए!

(१) पागल (२) रेत का समंदर (३) आदी (४) मतलबीपन

शनिवार, 26 जून 2010

मेरी पहली पंजाबी रचना!


कृपया तस्वीर पर क्लिक करें!
दोस्तों,

आज मैंने अपनी पहली पंजाबी रचना लिखी है! मेरे एक मित्र हैं हरप्रीत सिंह जो दुबई में रहते हैं उन्होंने मुझ से कहा एक दिन की आप क्यों पंजाबी में नहीं लिखते! तो मैंने सोचा की आज लिख कर देखूं कैसा परिणाम आता है!

आप लोगों में से कुछ पंजाबी शायद न पढ़ पाएं, इसीलिए अपनी रचना हिंदी में भी लिख रहा हूँ! अगर फिर भी किसी को समझना हो तो बे-हिचक मुझे ईमेल भेज दें!

पंजाबी फोंट स्वीकार कर रहा था मेरा ब्लॉगर टेक्स्ट बॉक्स सो पिक्चर लगा रहा हूँ उन दोस्तों के लिए जो पंजाबी पढना जानते हैं!



"पलकां नु विछाया सजणा"


अज कल्लेयाँ बैठे हंजुआं नु पुछेया मैं,
कानू इन्ना लम्मा विछोडा पाया सजणा,
जदों रो रो के टुट बैठी हार के मैं,
तेरी तस्वीर नु घुट छाती लाया सजणा,
अक्खां बंद कर सोचन लग्गी रब बारे,
तेरा चेरा अक्खां अग्गे आया सजणा,
तेरे सजदे गल्लां कर के कुज देर,
बलदी होई अग्ग नु बुझाया सजणा,
तेरे बाजों जी हुन्न लग्गदा नि मेरा,
रावां तक्क तक्क जी भर आया सजणा,
हुन्न देर न कर आ बना ले अप्पना,
तेरे लई पलकां नु मैं विछाया सजणा!

मंगलवार, 22 जून 2010

सावन के झूलों की तरह!

जब तुम दूर गए तो पतझड़ था,
बस तेज़ हवा और अंधड़ था,
अब लौट बसंत फिर आया है,
तुम भी आओ फूलों की तरह,
डालों पे जो हैं सूने पड़े,
तेरी बाहों को छूने खड़े,
आ के बाहों में तुम ले लो,
उन सावन के झूलों की तरह,
इंतज़ार और अब होता नहीं,
रातों में घंटो सोता नहीं,
पल पल जुदाई का अब तो,
चुभने सा लगा शूलों की तरह,
अब देर न कर खो जाऊंगा,
आगोश-ए-क़ज़ा(१) सो जाऊंगा,
आँचल में समो ले तू मुझको,
उड़ ना जाऊं राह की धूलों की तरह!
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(१) मौत की बाहों में
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शुक्रवार, 11 जून 2010

कुछ अधूरे ख्वाब!

गुज़रते हुए वक़्त के साथ साथ,
तन्हाइयां भी मेरी बढ़ने लगी हैं,
चाँद के सीधे दीदार से भी,
पलकें मेरी अब सिकुड़ने लगी हैं,
किताब में दफ्न तेरी दी हुई कली,
जाने किन पन्नो को पढने लगी है,
सुलगती हुई सी वो तासीर के संग,
हर पत्ती भी उसकी अब सड़ने लगी है,
कोशिश तो की लेकिन थक हार बैठा,
मेरी हिम्मत ही अब मुझसे लड़ने लगी है,
कुछ देखे थे ख्वाब जो रह गए अधूरे,
कुछ तीखी सी कोफ्त है बढने लगी है,
या मिला दे उसे या बुला ले तू मुझको,
बस साँसों की माला बिखरने लगी है,
बस साँसों की माला बिखरने लगी है!

रविवार, 9 मई 2010

माँ खुदा का रूप!

कोमल सी पलकें दुनिया में खुली,
सब से पहले मुझे तू दीखी माँ,
बाकी सब लफ्ज़ तो बाद में फूटे,
"माँ" पहली आयत मैंने सीखी माँ,
जब भी कभी रातों में डर से सिमटा,
तूने आँचल में मुझको समाया था माँ,
कागज़ पे आढी टेढ़ी लकीरों को देख,
मुझे अच्छे से लिखना सिखाया था माँ,
जब भी कोई गलती मैंने थी की,
सबके सामने ही तूने डांटा था माँ,
फिर मेरी पहली कामयाबी को भी,
उन्ही सब के साथ तूने बांटा था माँ,
आज तक जो तूने किया मेरे खातिर,
उसका सबाब क्या बताने से होगा,
कुछ और गर तेरे सजदे में कहूं,
तो सूरज को दिया दिखाना सा होगा,
हमेशा तेरा हाथ मेरे सर पे रहे,
तेरे प्यार की कभी छाँव कभी धूप है,
उसको देखने की अब तमन्ना नहीं है,
बस तू ही मेरे लिए खुदा का रूप है!

शुक्रवार, 7 मई 2010

अल्हान बना लूं मैं!

तेरे मीठे मीठे बोलों को होटों पे सजा लूं मैं,
चुन चुन के उन में मोती इक नज़्म बना लूं मैं,
अफरोज(१) तेरी इन आँखों में इस क़दर डूब जाऊं मैं ,
कुछ और नहीं मदहोशी पे अल्हान(२) बना लूं मैं,
हिचकोले खाती जुल्फों से कुछ तो बिशारत(३) लूं,
हर लफ्ज़ जो छन छन के निकले इक जाल बना लूं मैं,
इतनी तो फजीलत(४) खुदा मेरी आँखों को बख्श दे,
तू अपनी परछाई देखे आईना बना लूं मैं,
गर रुखसार से तू रोशन कर दे अँधेरे पल मेरे,
हर कोने में वो जलती हुई शम्मा को बुझा लूं मैं!
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(१) चमकती हुई (२) मधुर संगीत (३) प्रेरणा (४) महारत
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गुरुवार, 6 मई 2010

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये!

प्रिय दोस्तों,
आज किसी ने मुझे एक हास्य कविता भेजी तो मैंने सोचा क्यों न इसे अपने ब्लॉगर मित्रो से सांझा की जाए!
मुझे नहीं मालूम की ये कविता किसने लिखी है सो अगर किसी को पता हो तो कृपा कर के मुझे बताएं जिस से की मैं उनका नाम प्रकाशित कर सकू!
अभी नहीं जानता सो उनकी अनुमति की बिना ही अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर रहा हूँ!
**अति महत्तवपूर्ण**
ये कविता किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए नहीं कही गयी है, किसी भी व्यक्ति विशेष को भी टार्गेट नहीं किया गया है!
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तो दोस्तों पेश-ए-खिदमत है.......

"मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये"

तुम एम् ए फर्स्ट डिविजन हो, मैं हुआ मेट्रिक फेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
तुम फौजी अफसर की बेटी, मैं तो किसान का बेटा हूँ,
तुम रबड़ी खीर मलाई हो, मैं तो सत्तू सपरेटा हूँ,
तुम ए. सी. घर में रहती हो, मैं पेड़ के नीचे लेटा हूँ,
तुम नयी मारुती लगती हो, मैं स्कूटर लम्ब्रेटा हूँ,
इस कदर अगर हम चुप चुप कर आपस में प्रेम बढ़ाएंगे,
तो इक रोज़ तेरे पापा ज़रूर अमरीश पुरी बन जायेंगे,
सब हड्डी पसली तोड़ मुझे भिजवा देंगे वो जेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
तुम अरब देश की घोड़ी हो, मैं हूँ गधे की नाल प्रिये,
तुम दीवाली का बोनस हो, मैं भूखो की हड़ताल प्रिये,
तुम हीरे जड़ी तश्तरी हो, मैं अलमूनियम का थाल प्रिये,
तुम चिकन सूप बिरयानी हो, मैं कंकड़ वाली दाल प्रिये,
तुम हिरन चौकड़ी भरती हो, मैं हूँ कछुए की चाल प्रिये,
तुम चन्दन वन की लकड़ी हो, मैं हूँ बबूल की छाल प्रिये,
मैं पके आम सा लटका हूँ, मत मारो मुझे गुलेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
मैं महिषासुर सा हूँ कुरूप, तुम कोमल कंचन काया हो,
मैं तन मन से कांशी राम, तुम महा चंचल माया हो,
तुम निर्मल पावन गंगा हो, मैं जलता हुआ पतंगा हूँ,
तुम राज घाट का शांति मार्च, मैं हिन्दू मुस्लिम दंगा हूँ,
तुम हो पूनम का ताज महल, मैं काली गुफा अजन्ता की,
तुम हो वरदान विधाता का, मैं गलती हूँ भगवंता की,
तुम जेट विमान की शोभा हो, मैं बस की ठेलम ठेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
तुम नयी विदेशी मिक्सी हो, मैं पत्थर का सिलबट्टा हूँ,
तुम ए. के. सैंतालिस जैसी, मैं तो इक देसी कट्टा हूँ,
तुम चतुर राबड़ी सी जैसी, मैं भोला भाला लालू हूँ,
तुम मुक्त शेरनी जंगल की, मैं चिड़ियाघर का भालू हूँ,
तुम व्यस्त सोनिया गाँधी सी, मैं वी.पी. सिंह सा खाली हूँ,
तुम हंसी माधुरी दीक्षित की, मैं पुलिस मैन की गाली हूँ,
कल जेल अगर हो जाए तो दिलवा देना तुम बेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
मै ढाबे के ढाँचे जैसा, तुम पांच सितारा होटल हो,
मै महुए का देसी ठर्रा, तुम रेड लेबल की बोतल हो,
तुम चित्रहार का मधुर गीत, मैं कृषि दर्शन की झाडी हूँ,
तुम विश्व सुंदरी सी कमाल, मैं तेलिया छाप कबाड़ी हूँ,
तुम सोने का मोबाइल हो, मैं टेलीफोन का हूँ चोंगा,
तुम मछली मानसरोवर की, मैं सागर तट का हूँ घोंगा,
दस मंजिल से गिर जाऊंगा, मत आगे मुझे धकेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
तुम सत्ता की महारानी हो, मैं विपक्ष की लाचारी हूँ,
तुम हो ममता-जयललिता सी, मैं कुंवारा अटल बिहारी हूँ,
तुम तेंदुलकर का शतक प्रिये, मैं फोल्लो ओन की पारी हूँ,
तुम गेट्ज मटीज कोरोल्ला हो, मैं लेलैंड की लारी हूँ,
मुझको रेफरी ही रहने दो, मत खेलो मुझ से खेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये,
मैं सोच रहा की रहे हैं कब से, श्रोता मुझ को झेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये!

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

यादों के धागे!

जब मौत का पैगाम आये,
फ़रिश्ते मोड़े नहीं जाते,
दूर रह के हर रिश्ता तोड़ दो,
एहसासों के रिश्ते तोड़े नहीं जाते,
दुआ है तुझे भूलने से पहले,
सासें टूट जाएँ मेरी,
इक बार जो टूटे दिल के,
टुकड़े जोड़े नहीं जाते,
हर ज़ख्म सहने की,
हिम्मत जोड़ लेते हैं,
कुछ ज़ख्म ऐसे होते हैं,
खुल्ले छोड़े नहीं जाते,
गर जुदा भी हुए कभी,
बस बदन ही अलग होंगे,
इतने पक्के यादों के धागे,
ज़माना लाख कोशिश कर ले,
कभी तोड़े नहीं जाते...
कभी तोड़े नहीं जाते!

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

नज़र तू आया!

आज तेरी याद ने कुछ यूं सताया,
लाख रोका दिल को पर भरता आया,
तन्हाई दूर करने घूमने निकला,
लहरों के साहिल पे खुद को चलता पाया,
गहवारा(१) लहरों से चाँद निकलते देखा,
इक पल को तेरा चेहरा नज़र आया,
आँखें मूँद लहरों से गुजारिश जो की,
हर छींट संग मोतियों का पुलिंदा आया,
चुन चुन के उन में सब से पारसा(२) मोती,
अपने हाथों से तेरे लिए इक हार बनाया,
सोचा नीले समंदर में डूब के देखूं,
अगले ही पल तेरी आँखों का ख़याल आया,
दिल ने फिर बादलों में खोने को जो कहा,
तेरी जुल्फों से खेलने का मन बना आया,
तेरे आने की उम्मीद में पलकें जो मूंदी,
इलाही के रूप में मुझको नज़र तू आया!

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(१) हिचकोले खाती (२) पवित्र
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गुरुवार, 25 मार्च 2010

ख़्वाबों में लाने के लिए!

इक दरख्वास्त तुझ से की है,
नज़र-ए-जाम पिलाने के लिए,
कतरा-ए-आब(१) ही काफी है सादिक,
मुझे होश में लाने के लिए,
अबरू(२) ये तीखी कम नहीं,
हूरे-सल्तनत हिलाने के लिए,
इन्ही से घायल कर मुझको,
वक़्त नहीं तलवार चलाने के लिए,
देर हुई तो कहीं दम न तोड़ दूं,
हकीम मिलता नहीं ज़ख्म सिलाने के लिए,
जो कहीं नागहाँ(३) दूर चला भी जाऊं,
साँसों से छू लेना मुझे जिलाने के लिए,
हर कीमत देने काबिल हूँ मैं,
तुझे न कभी भुलाने के लिए,
चल अब आँखें मूँद लेता हूँ,
सोना तो पड़ेगा तुझे ख़्वाबों में लाने के लिए!
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(1) पानी का एक कतरा (२) भोहें (३) दुर्घटनावश **********************************************

बुधवार, 24 मार्च 2010

तेरी यादें!


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धन्यवाद!

बुधवार, 17 मार्च 2010

वही कहते हैं!

अब कोई और काम नहीं रह गया,
हर पल तेरे ख्यालों में रहते हैं,
खमदार(१) गेसुओं में खोये हुए,
दिल की उलझने सुलझाते रहते हैं,
ना जाने की इबरत(२) गजरे ने दी थी,
बोले जुल्फों में बादल घने रहते हैं,
मैंने भी फिर चुपके से पूछा ये उसको,
क्या घटायें और पानी संग नहीं रहते हैं,
सन्न सा हुआ मेरे इस नजीर(३) पे,
बोला ये जुमले कहाँ से बहते है,
मोहब्बत ने शायर बना डाला मुझको,
जो लरजता है दिल में वही कहते हैं!

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(१) घुंघराले (२) चेतावनी (३) उदाहरण
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शुक्रवार, 12 मार्च 2010

अधूरी ख्वाहिशें!


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धन्यवाद!

सोमवार, 8 मार्च 2010

नमन करता हूँ-महिला दिवस पर कुछ ख़ास!


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सधन्यवाद,

सुरेन्द्र!

गुरुवार, 4 मार्च 2010

दिल-ए-मासूम!


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रविवार, 28 फ़रवरी 2010

होली पे कुछ ख़ास!



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धन्यवाद!

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

न तू मुझको भूले!


एहतराम(१) में पलकें बिछाए खड़े हैं,

तू आये और इन सर्द आँखों को छू ले,

एजाज़(२) की आरज़ू में शायद इन सूखे,

दरख्तों पे पड़ जाएँ सावन के झूले,

तहम्मुल(३) की हदें मैं तोड़ न बैठूं,

इक पल के लिए भी जो तू दूर हो ले,

बिशारत-ए-आमद(४) जो आ जाए तेरी,

इल्तेजा ये करूँ हर सांस मेरी तू ले,

चल इस तरह तेरी आगोश में रह लूं,

न मैं तुझको भूलूँ न तू मुझको भूले,

खारदार(५) जो वक़्त कभी तुझपे आये,

इलाही ये दिल ही उसे रू-ब-रू ले !

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(१) सम्मान (२) चमत्कार (३) धैर्य (४) आने की खुशखबरी (५) मुसीबतों भरा

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शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

खताएं भुला दे!

तन्हाई में ग़ुम मैं तेरा आदी हो गया हूँ,
कम से कम अब मेरी खताएं भुला दे,
ख़याल-ए-वस्ल(१) की हाफिजा(२) कुछ और जी लूं,
नींद और हो गहरी साया-ए-ज़ुल्फ़ फैला दे,
कुछ ऐसा हो के मुहब्बत कामिल(३) हो मेरी,
चंद बचे पलों में दो पल अपने मिला दे,
राज़-ओ-नियाज़(४) तुझसे करूँ कुछ वक़्त जो मिले,
आगोश में ले और ख़्वाबों में झुला दे,
इक छुअन से तू मेरी यास(५) ज़िन्दगी बदल दे,
कगार-ए-मौत पे बुझती हुई शम्मा जला दे!
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(१) मिलने के ख्याल (२) मीठी यादें (३) पूरी (४) वो बातें जो बस आशिकों के बीच होती हैं
(५) जिसमें कोई उम्मीद न हो
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आपका,
सुरेन्द्र!

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

रकीब हो जाते हैं!


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धन्यवाद!

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

"will you be my valentine"


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आप सभी को प्रेम दिवस की शुभकामनाएं!

आपका,

सुरेन्द्र "मुल्हिद"