मंगलवार, 16 सितंबर 2014

"इक क़सक जो अधूरी रह गयी" - मेरी १००वी रचना

तू साथ थी फिर भी तेरे हम-नवां(१) ना हो पाये
तुझ से दूर हुए फिर भी तुझसे जुदा ना हो पाये
हर वक़्त तुझे पलकें मूँदे किसी के सजदे में ग़ुम देखा
आखिर में मेरे गुमाँ(२) निकले पर तेरे ख़ुदा ना हो पाये
हज़ारों खतायें की होंगी तेरे जानिब(३) रह कर भी
बेइन्तेहाँ तग़ाफ़ुल(४) किये होंगे तुझे अपना कह के भी
ना जाने कितनी गिरहें(५) उलझ गयीं इन बीते लम्हों में
वक़्त गुज़ारते हैं इन्हे खोलने में पर बेवफा ना हो पाये
जब बिछड़ रहे थे तुझसे आँखों में नमी लिए
मुसल्सल(६) उम्मीद थी काश तुझे आग़ोश में ले पाएं
तुझ पे लिखे कुछ लफ्ज़ जो होटों पे लरज़ते रहे
अफ़सोस जुदा होते हुए भी वो ग़ज़ल ना कह पाये
खुदा मुझे या तो तुझे बख़्शे या करा दे मौत नसीब
बस एक बार दीदार हो और हम ये कह पाएं

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(१) अपनापन (२) धोखा (३) पास (४) तिरस्कार (५) गाँठें (६) सरासर

मंगलवार, 7 जनवरी 2014

अरमान अभी कुछ बाक़ी हैं!

क्या जी ली ज़िंदगी जी भर के
या उम्मीद नयी इक ताकी है
हर रोज़ सोच के जीता हूँ
अरमान अभी कुछ बाक़ी हैं
बचपन की यादें हुई गुम
वो यार जो बिछड़े राहों में
उन यारों से भी झगड़ों का
कुछ लेना देना बाक़ी है
जद्दो - जहद में ज़िन्दगी की
कुछ पल जो सुनहरे बिखर गए
उन पलों से खुद के पल चुन कर
शीशे में सजाना बाक़ी है
कभी इसके लिए कभी उसके लिए
अपनों के लिए दूजों के लिए
हर लम्हा दिल से  जीता हूँ
उम्मीद सी दिल में बंधती है
मेरा वक़्त भी आना बाक़ी है
सबके जीवन में खुशियों के
मुस्काते फूल खिलाता हूँ
शायद वो मिटटी होगी हरी
जिसका वो रंग तो खाकी है
हर रोज़ सोच के जीता हूँ
अरमान अभी कुछ बाक़ी हैं!